चोल कालीन स्थानीय स्वायत शासन

        
         चोल प्रशासन की सबसे उल्लेखनीय विशेषता स्वायत्त शाही ग्रामीण संस्थाओं के परिचालन में परिलक्षित होती हैं। परांतक प्रथम के उत्तरमेरूर अभिलेख में चोल कालीन स्थानीय ग्राम शासन के संबंध में जानकारी मिलते हैं। वस्तुतः पल्लव पांडवों की ग्रामीण स्वायत्तता का अतिविकसित रूप चोल कालीन स्थानीय ग्राम शासन ने दिखाई पड़ता है। ग्राम प्रशासन ग्रामवासियों द्वारा चलाया जाता था। ग्रामीण प्रशासन का संचालन ग्राम समूह एवम ग्राम सभाओं के द्वारा संचालित किया जाता था।

• ग्राम समूह :

            ग्राम समूह सामाजिक -आर्थिक तथा धार्मिक आधार पर वर्गीकृत किए जाते थे। उनका अधिकार क्षेत्र किसी कार्य विशेष तक ही सीमित होता था। जैसे - धार्मिक आधार पर( मंदिरों के प्रबंधन) मुलपेरुदीयार, आर्थिक आधार पर वलंगियार एवम् मनिग्रामम।
 
ग्राम सभाएं :
  
        चोल अभिलेख में मोटे तौर पर तीन प्रकार की ग्राम सभाओं का उल्लेख मिलता है - उर, सभा या महासभा तथा नगरम।
1. उर --
• सामान्य लोगों की सभा, अधिकतर ग्रामवासी पुरुष सदस्य होते थे।
• उर का मुख्य कार्य सार्वजनिक हितों के लिए तलाब तथा वाटिका हेतु ग्राम भूमि का अतिक्रमण करना, कर वसूल करना आदि था।
• कभी-कभी एक गांव में दो- दो उर भी हो सकते थे।

2. सभा या महासभा ---
मूल रूप से यह अग्रहारो अथवा ब्राह्मणों की बस्तियों की संस्था थी। 
• सभा को पेरुरगुरी तथा इसके सदस्यों को पेरुमकल्लम कहा जाता था।
• सभा अपनी समितियों के माध्यम से कार्य करती थी। समिति के सदस्यों का निर्वाचन किया जाता था। इस निर्वाचन के लिए प्रत्येक को 30 कुट्टुंब में बांटा जाता था।

3.नगरम --
 व्यापारी से संबंध नगरम नामक सभा होती थी, जो व्यापारिक केंद्रों के प्रबंधन को देती थी।
•विभिन्न व्यापारिक वर्गों, प्रतिष्ठानों तथा उद्योगों पर कर का दरों का निर्धारण तथा वसूली का दायित्व नगरम का ही होता था।
• नगरम सभा वसूले गए धन का उपयोग, नगरों के व्यापारिक तथा औद्योगिक विकास हेतु, नगर विकास, यातायात की व्यवस्था हेतु करती थी।

• सभा या महासभा की निर्वाचन प्रणाली, अर्हताएं तथा अनर्हताएं ---

• अर्हताएं ---
• गांव का स्थाई निवासी हो।
• उसकी आयु 35 से 70 वर्ष के बीच हो।
• कम से कम 1/ 4 वेली (डेढ़ एकड़) भूमि का स्वामित्व हो।
• अपनी भूमि पर उसका भवन हो।
• वैदिक मंत्रों का ज्ञाता हो।

• अनर्हताएं ---
• वह लगातार 3 वर्षों तक इसी समिति का सदस्य रह चुका हो।
• आय-व्यय का हिसाब नहीं दिया हो।
• चोरी या पाप कर्मों का भागी हो।
        इन प्रावधानों से स्पष्ट है कि चोल ग्राम शासन में शुचिता पर विशेष बल दिया जाता था। सदस्य निर्वाचन के पश्चात निरंकुश ना हो, भ्रष्टाचार ना करें, इसलिए सदस्यों की सदस्यता रद्द करने का प्रावधान रखा गया था। इस दृष्टि से यह प्रावधान आधुनिक जनतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप दिखाई देता है।

• निर्वाचन प्रणाली ---
• सदस्यों को लाटरी के माध्यम से चुना जाना। इस प्रकार कुल 30 सदस्य को चुना जाता था।
• हर 3 वर्ष में सदस्य हटाए जाते थे, तथा निर्वाचन किए जाते हैं।

• सभा या महासभा के कार्य एवं भूमिका।
    सभा का कार्य क्षेत्र बहुत विस्तृत था। यह सभाएं अपनी कार्यविधि में एक लघु गणतंत्र मान जा सकती है। ग्रामसभा को राज्य के प्राय सभी अधिकार मिले थे।

• गांव की समस्त सार्वजनिक एवं व्यक्तिगत भूमि और जंगलों पर नियंत्रण रहता था।
• सभा कृषि एवं जंगलों की समुचित व्यवस्था तथा उससे संबंध विवादों का निपटारा करती थी।
• ग्रामवासियों पर कर लगाना वसूलना तथा उनसे बेगार लेने का अधिकार सभा को था।
• पेयजल सिंचाई आवागमन के साधनों एवं मार्गो की  व्यवस्था करना।
• मंदिरों शिक्षण संस्थाओं, दानग्रहों का प्रबंधन करना।
• ग्राम के संबंध में न्यायिक अधिकार भी थे।
• ग्रामवासियों के स्वास्थ्य, जीवन और संपत्ति की रक्षा करना।
• राजस्व संग्रह कर सरकारी कोष में जमा करना।

• जनतांत्रिक स्वरूप की सीमाएं / स्थानीय स्वायत्त शासन की सीमाएं ---

• कर वसूली करके सरकारी खजाने में जमा करना ग्राम सभा का मुख्य कर्तव्य था। यह भूमिका राजा के एजेंट के रूप में स्थापित करती है।
• इसने समाज का उच्च वर्ग संबंध था जनसाधारण नहीं। इस व्यवस्था में भूमिहीनों, निरक्षरों को सभा में प्रवेश का अधिकार नहीं था।
लाटरी पद्धति से सदस्यों का निर्वाचन जनतांत्रिक प्रक्रिया की गंभीर सीमाओं की और इशारा करती हैं।
• सभाओं में निर्णय लेने के क्या मापदंड थे? इसका अभाव था।
उर का सदस्य गांव का प्रत्येक पुरुष होता था। अर्थात महिलाओं की भागीदारी इन सभाओं में नहीं थी। अर्थात लिंगभेद की प्रवृत्ति मौजूद थी।

       इस प्रकार ग्राम शासन में स्वायत्तता के तमाम पर पहलू दिखाई देते हैं। जहां तक ग्राम शासन के जनतांत्रिक स्वरूप की बात है तो आधुनिक जनतांत्रिक मापदंडों के आधार पर उनकी सीमाएं स्पष्ट हैं, किंतु प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत में इस तरह की ग्राम सभा की व्यवस्था अद्भुत हैं और अपने आप में महत्वपूर्ण हैं। जो जनतांत्रिक तत्व मिलते हैं उनका महत्व किसी भी दृष्टि से कम नहीं है।

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