पल्लव कालीन मंदिर वास्तुकला

        
         जिस तरह से उत्तर भारत में विभिन्न उप- शैलियों के साथ नागर शैली विकसित हुई। उसी प्रकार दक्षिण भारत में मंदिर वास्तुकला की विशिष्ट शैली विकसित हुई। जिनमें द्रविड़ शैली के प्रारंभिक रूप में पल्लव कालीन मंदिर वास्तुकला देखी जा सकती हैं।
        दक्षिण भारत में मंदिर वास्तुकला पल्लव शासक महेंद्रवर्मन की देखरेख में शुरू हुई। पल्लव वंश के दौरान बनाये गए मंदिरों में व्यक्तिगत शासकों की अलग-अलग शैली परिलक्षित होती हैं। इन्हें कालक्रम के अनुसार 4 चरणों में वर्गीकृत किया जा सकता हैं।

1. महेंद्रवर्मन शैली : (600-630ई.)
       यह पल्लव मंदिर वास्तुकला का पहला चरण था। महेंद्र वर्मन के शासनकाल में " चट्टानों को काटकर मंदिर का निर्माण"  किया गया था इस दौरान मंदिर को मंडप का जाता था जबकि नागर शैली में मंडप का मतलब केवल सभा गृह होता था।

2. नरसिंह वर्मन शैली : (630-668ई.)
     इसे दक्षिण भारत में इससे मंदिर स्थापत्य की विकास का दूसरा चरण कहा जा सकता है। चट्टानों को काटकर बनाए गए मंदिरों को उत्कृष्ट मूर्तियों द्वारा सजाए गया है। नरसिंह वर्मन के शासन में मंडप को अलग-अलग रथो में विभाजन किया गया। जो महाभारत के पांच पांडवों रथों का निर्माण किया गया है। सबसे बड़े भाग को धर्मराज रथ का जाता था। तथा सबसे छोटे भाग को द्रौपदी रथ का जाता था। इसे मामल्ल शैली भी कहते है।

3. राजसिंह शैली : 
     राजसिंह वर्णन में मंदिर निर्माण के विकास के तीसरे चरण का नेतृत्व किया। इस दौरान मंदिर के वास्तविक संरचना का विकास प्रारंभ हुआ।
उदाहरण : महाबलीपुरम का समुद्र तटीय मंदिर !
कांचीपुरम का कैलाश नाथ मंदिर!

3. नंदीवर्मन शैली :
       पल्लव वंश के दौरान मंदिर निर्माण के इस चौथे चरण का विकास हुआ। इस दौरान बनने वाले मंदिर आकार में छोटे थे। अन्य विशेषता द्रविड़ शैली जैसे ही थी।

         पल्लव वंश के पतन के बाद चोल शासकों के शासन काल ने मंदिर वास्तुकला की एक नई शैली विकसित हुई इससे मंदिर स्थापत्य की द्रविड़ शैली के रूप में जाना जाता है इसे दक्षिण भारत में मंदिरों के निर्माण का एक नया युग माना जाता है।

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