राजपूतों की उत्पत्ति : देशी या विदेशी!
भारतीय इतिहास में सामान्यतः 750- 1200 ईसवी का काल राजपूतों का काल के नाम से जाना जाता है। वस्तुतः इस काल में अनेक छोटे-बड़े राज्य की स्थापना हुई और इन शासकों ने अपने को राजपूत वंश से संबंध किया। इन वंशो का नाम इससे पूर्व के समय में सुनाई नहीं पड़ता लेकिन 8वी सदी से राजनैतिक क्षेत्र में राजवंशों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी शुरू की। इसी बिंदु पर यह जानना आवश्यक हो जाता है कि राजपूत कौन थे और उनकी उत्पत्ति कैसे हुई?
वस्तुतः राजपूत शब्द संस्कृत से राजपूत्र से निष्पन्न है। राजपुत्र शब्द का प्रयोग आरंभ में राजकुमार के अर्थ में किया जाता था। और पूर्व मध्यकाल में सैनिक वर्गो और छोटे जमीदारों के लिए किए जाने लगा। आगे राजपूत शब्द शासन वर्ग का पर्याय बन गया।
राजपूतों की उत्पत्ति का प्रश्न काफी जटिल विवादास्पद हैं। कुछ ने इसे विदेशी जातियों से उत्पन्न बताया और कुछ विद्वानों ने भारतीय उत्पति का मत प्रतिपादित किया।
• विदेशी उत्पत्ति का मत :
इन संदर्भ में कर्नल जेम्स टॉड, विलियम क्रूक, स्मिथ, भंडाकरण जैसे इतिहासकारों ने राजपूतों को सिथियन, शक, हूण जैसे विदेशी जातियों से उत्पन्न बताया। इन विद्वानों के अनुसार विदेशी जातियों के रहन- सहन, वेशभूषा, मासाहार का प्रचलन रथों को युद्ध में प्रयोग, यज्ञों का प्रचलन राजपूतों में भी मिलता हैं।
इसके अतिरिक्त शक, कुषाण जैसे विदेशी जातियों का भारतीय समाज में आत्मसातीकरण हुआ और उन्हे व्रात्य क्षत्रिय कहा गया। इन भारतियाकृत विदेशियों के राजवंशों को राजपूत का नाम दिया।
राजपूतों को विदेशी सिद्ध करने के लिए पृथ्वीराज रासो की अग्निकुल कथा का भी अवलंबन लिया जाता है। जिसके अनुसार वशिष्ठ द्वारा किए गए अग्निकुंड यज्ञ से प्राप्त प्रतिहार, परमार, चालुक्य, और चौहान राजपूत कूलो का उद्भव हुआ जो विदेशी जाति के थे और इन्हे अग्नि संस्कार के द्वारा शुद्ध किया गया।
• देशी (भारतीय) उत्पत्ति से संबंधित मत :
इस मत के प्रतिपादक गौरीशंकर ओझा, सी. वी वैध और दशरथ शर्मा प्रमुख हैं। इन्होंने विदेशी मत के सिद्धांत को पूर्ण खारिज कर दिया। इसके अनुसार जिस रहन-सहन, खान-पान, रथ प्रयोग युद्ध में संलग्न की बात विदेशियों की विशेषताएं बताई गई। वस्तुतः वह प्राचीन भारतीय क्षत्रिय वर्ण में मिलती हैं। पृथ्वीराज रासो की अग्निकुंड कथा ऐतिहासिक नहीं लगती। इस प्रकार विदेशी उत्पत्ति का मत कल्पना पर अधिक आधारित हैं और ठोस तथ्यों पर कम।
वस्तुत: राजपूत वैदिक क्षत्रिय के ही परिवर्तित रूप हैं।अनेक राजपूत राजाओं के अभिलेखों में उनके सूर्यवंशी और चंद्रवंशी राजाओं से संबंध दिखाए गए है। प्रतिहार, राष्ट्रकूट, चालुक्य जैसे राजपूत वंश अपना संबंध राम और कृष्ण से स्थापित करते है। प्राचीन क्षत्रिय वर्ण के शासक तथा योद्धा वर्ग के लोग ही इस काल में राजपूत कहे गए। यदि वे विदेशी होते तो भारतीय संस्कृति एवम् भारत देश के प्रति उनमें इतनी भक्ति नहीं दिखाते।
• मिश्रित जाति के रूप में उद्गम
परंतु ऐतिहासिक साक्ष्यों के मद्देनजर दोनों ही मत अतिवादी प्रतीत होते हैं। भारतीय वर्ण व्यवस्था में विदेशी जातियों का स्थान दिया गया और भारतीय वंशो में इनका वैवाहिक संबंध कायम हुआ। वैदिक क्षत्रियों में विदेशी जाति के वीरों के मिश्रण से जिस नवीन जाति का आविर्भाव हुआ। उसे राजपूत कहा गया।
सामाजिक- आर्थिक संबंधों एवं ब्रह्माक्षत्र परंपरा से भी राजपूतों को उत्पत्ति को जोड़कर देखा जाता है। नए क्षेत्रों के उपनिवेशीकरण की बहुलता तथा कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था का विस्तार, जिसमें भूमि अनुदानों की विशेष भूमिका रही, के चलते जमीदार राजवंशों का उदय हुआ। जो क्षत्रिय एवं ब्राह्मणों के आदर्शों को अपनाकर राजपूत बने।
इस प्रकार ब्रह्माक्षत्र परंपरा से राजपूत वंशों का विकास माना जाता है। प्रतिहार, चौहान, चंदेल आदि वंश के संस्थापक ब्राह्मण थे। वर्धन साम्राज्य के पतन उपरांत तथा अरबों के आक्रमण से फैली अर्थव्यवस्था से सुरक्षा प्रदान करने के लिए शास्त्र के स्थान पर शस्त्र का सहारा लिया। और प्राचीन क्षत्रिय वंश से अपना संबंध जोड़ा और कालांतर में राजपूत कहलाए।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि राजपूतों की उत्पत्ति का प्रश्न एक व्यापक ऐतिहासिक संदर्भ प्रस्तुत करता है। जिसके अनुसार राजपूतों की उत्पत्ति को परंपरागत भारतीय वर्ण व्यवस्था, नवीन विदेशी जातियों के आगमन तथा सामाजिक आर्थिक संबंधों से जोड़कर देखा जाना चाहिए।
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