मंदिर वास्तुकला की नागर शैली
पांचवी शताब्दी के पश्चात भारत के उत्तरी भाग में मंदिर स्थापत्य की एक भिन्न शैली विकसित हुई। जिससे नागर शैली के रूप में जाना जाता है।
• नागर शैली की विशेषताएं
• मंदिर में सामान्य रूप से मंदिर निर्माण करने की पंचायत शैली का अनुपालन किया गया, इसके अंतर्गत मुखिया मंदिर के सापेक्ष क्रूस आकार के भू विन्यास पर गोण देव मंदिरों स्थापना की जाती थी।
• मुख्य देव मंदिर के सामने सभाकक्ष या मंडप स्थित होते थे।
• गर्भ गृह के बाहर, नदी देवियों, गंगा और यमुना की प्रतिमाओं को स्थापित किया जाता था।
• मंदिर परिषद में जल का कोई टैंक या जलाशय नहीं होता था।
• मंदिरों को सामान्य रूप से भूमि से ऊंचे बनाए गए मंच (वेदी) पर निर्मित किया जाता था।
• द्वार मंडप के निर्माण में स्तंभों का प्रयोग किया जाता था।
• मंदिरों के ऊपर शिखर का निर्माण किया जाता था। शिखर सामान्यतः वर्गाकार और आयताकार या अर्धगोलाकार होते थे।
• शिखर के ऊपर एक गोलाकार आकृति को स्थापित किया जाता था जिसे कलश कहा जाता हैं।
• गर्भ ग्रह के चारों और प्रदक्षिणा पथ होता था जो ढका हुआ होता था।
• मंदिर परिसर चारदीवारी से गिरा नहीं होता था और प्रवेश द्वार भी नहीं होता था।
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